नयी सरकार आने के बाद
पिछले दिनों ‘पलासी से विभाजन तक’ नामक किताब को आरएसएस के अनुषांगी संगठन
विद्या भारती के महामंत्री दीनानाथ बत्रा द्वारा कानूनी नोटिस भेजा गया है।
न्यूजीलैण्ड के विक्टोरिया विश्वविद्यालय
के प्रो0 शेखर वंद्योपाध्याय द्वारा लिखी गयी यह पुस्तक आधुनिक भारत के
इतिहास की एक बेहतरीन पुस्तक है। इसकी गंभीरता का अंदाजा इसकी भूमिका की
दूसरी पंक्ति से लगाया जा सकता है, जिसमें कहा गया है- ‘‘यह उपनिवेशी
राजसत्ता से या ‘भारत पर राज करने वाले व्यक्तियों’ से अधिक भारतीय जनता पर
केन्द्रित है’’। वस्तुतः इतिहास ही वह सबसे धारदार अस्त्र है जो
शिक्षार्थियों में समग्रतावादी और वैज्ञानिक दृष्टि पैदा करता है और यह अकारण
नहीं कि है शिक्षा के क्षेत्र में संघ परिवार का पहला और केन्द्रित हमला
इतिहास पर हुआ है। इतिहास मानव जाति को सच्ची आत्म-चेतना से लैस करने का साधन
है और उज्जवल भविष्य की ओर उनके बढ़ने की कुंजी भी।
2004 में प्रकाशित ‘पलासी से विभाजन तक’ को दीनानाथ बत्रा द्वारा आईपीसी की
धारा 295ए के तहत कानूनी नोटिस भेजा गया है और कहा गया है कि इसमें आरएसएस के
खिलाफ अपमानजनक और अनादरपूर्ण बातें लिखी गयी हैं। इस किताब में लगभग छः या
सात जगह आरएसएस का जिक्र है। ‘भारतीय राष्ट्रवाद के विविध स्वर’ नामक अध्याय
में आरएसएस के बारे में शेखर बंद्योपाध्याय ने क्रिस्तोफ़ जेफ्रीला के हवाले
से लिखा है- ‘‘हिन्दू महासभा ने 1924 में हिन्दू संगठन की मुहिम शुरू की और
एक खुले-आम हमलावर हिन्दू संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की स्थापना इसी साल
हुई।’’ हो सकता है ऐसे ही तथ्यों से शायद दीनानाथ बत्रा की भावनाएं आहत हुई
हों। परन्तु सवाल इतिहास की वस्तुनिष्ठता का है, क्या इतिहास को ‘भावनाओं’ की
सीमा में कैद कर लिया जाये? आजादी के पहले तथ्यों को यदि छोड़ भी दिया जाये
तो हम पाते हैं कि संघ परिवार के तमाम संगठन आतंकी गतिविधियों में संलिप्त
रहे हैं। इसका उदाहरण इतिहास में भरा पड़ा है- बात चाहे 2002 में गुजरात के
दंगों में या फिर उड़ीसा के कंधमाल जिले में चरमपंथी हिन्दुत्ववादी बजरंग दल
की भूमिका हो या फिर समझौता एक्सप्रेस से लेकर मालेगांव विस्फोट की। क्या
किसी भावनाओं की भावनाओं की खातिर इनके काले कारनामों पर इतिहास राख डाल दें?
मोदी सरकार का गठन हुए अभी महीना भी नहीं बीता कि आरएसएस के लोगों ने यह
सिद्ध कर दिया कि ‘विकास-विकास’ का ढिढोरा पीटने वाली भाजपा के एजेंडे में
‘विकास’ की कोई प्राथमिकता नहीं है। धारा-370 और समान दण्ड संहिता और अब
इतिहास में फेर-बदल ही उनका मुख्य एजेंडा है। इतिहास और शैक्षिक पाठयक्रमों
में हस्तक्षेप का नमूना पिछली राजग सरकार में देखने को मिल गया था कि किस तरह
कक्षा-ग्यारह की एनसीईआरटी के ‘प्राचीन भारत’ की किताब में प्रो0 रामशरण
शर्मा के पाठ के पृष्ठों को हटा दिया गया था। इस पाठ में प्रो0 शर्मा ने महान
प्राच्यवादी राजेन्द्र लाल मित्र के हवाले से तर्कसम्मत और वस्तुनिष्ठ
दृष्टिकोण अपनाते हुए आर्योंं के गोमांस खाये जाने की प्रथा पर एक सशक्त लेख
लिखा था। यह तथ्य सिर्फ इसलिए छिपाया गया ताकि वे ‘गाय’ पर राजनीति कर सकें।
ठीक इसी तरह अब इतिहास में नये-नये राष्ट्रीय प्रतीकों और नायकों को गढ़ा
जायेगा। इसकी शुरूआत नरेन्द्र मोदी ने कर दी है। इकतीस मई को उन्होंने राणा
प्रताप की जयंती पर ट्वीट करके श्रद्धांजलि दी, इस प्रकार मेवाड़ के छोटी सी
रियासत के राजा प्रताप का राष्ट्रीय चरित्र उकेरा जायेगा। आखिर इतिहास के छः
गौरवशाली महायुगों पर इतराने वाली दक्षिणपंथी राजनीति को सिर्फ मध्यकालीन
प्रतीक ही क्यों मिलते हैं? वस्तुतः इसके पीछे की रणनीति यह है कि जब राणा
प्रताप और शिवाजी सरीखे लोगों को ‘राष्ट्रनायक’ बताया जायेगा तो इसके विपरीत
अकबर महान और औरंगजेब को खलनायकों की भूमिका में ही चिन्हित किया जायेगा। इस
रणनीति के जरिये ही भाजपा अपने ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ के एजेण्डे के औचित्य
को स्थापित करके भारत के अन्दर ‘छोटे-छोटे पाकिस्तान’ के खात्मे के नाम पर
गंगा-जमुनी तहजीब को तार-तार करेगी।
मार्के की बात यह है कि प्राचीन इतिहास को ‘हिन्दू काल’ बताने वालों के पास
कोई प्रतीक प्राचीन काल का नहीं है क्योंकि जब भी प्राचीन काल बात होगी तो
तमाम विरोधाभाष आयेगें जो विचारधारा के तौर पर दक्षिण पंथी राजनीति के अनुकूल
नहीं है। उदाहरण के तौर पर यहाँ के मूलनिवासियों पर किये गये तरह-तरह
अत्याचार सामने आयेगें कि किस तरह शिक्षा ग्रहण करने पर ऊपर पाबंदी थी। वेद
के मंत्रों को सुन लेने पर कान में पिघला सीसा डालने का प्रावधान था, जो इनके
‘हिन्दुत्व’ की राजनीति के लिए घातक साबित होगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी
को ‘अजातशत्रु’ की उपाधि देने वाले पुष्पमित्र शुंग की बात क्यों नहीं करते
जिसने ब्राह्मणवादी सत्ता से उत्पीडि़त हो बौद्ध धर्म ग्रहण करने वाले
दलितों-पिछड़ों का सर कलम करने के लिए अलग से मंत्रालय तक खोल रखा था। आखिर
‘हिन्दूकाल’ पर इतराने वाली दक्षिणपंथी राजनीति यह प्रतीक क्यों नहीं दिखाती
है? खैर ‘अजातशत्रु’ (पितृहंता) की पहचान पोरियार-अम्बेडकर की पीढ़ी करेगी और
वह ‘अजातशत्रु’ के हाथों कत्ल नहीं होगी।
फिलहाल, 16वीं लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी ने ‘राष्ट्रवाद’ का नारा खूब
लगाया, अब ‘उसी राष्ट्रवाद’ को बेहतर ढंग से समझाने वाली किताब ‘पलासी से
विभाजन तक’ को नोटिस देना कहाँ तक जायज है? राजग की पिछली सरकार में
एनसीईआरटी के निदेशक रहे जगमोहन सिंह राजपूत ने भी ‘इतिहास’ में बदलाव का
संकेत दिया है। अब पूरी कवायद से इतिहास का पुनर्लेखन होगा और विगत वर्षों
में इतिहास ने एक विषय के रूप में जो प्रगति की है, उसे ध्वस्त करते हुए ‘नया
इतिहास’ लिखा जायेगा, जिसमें राष्ट्रपिता महात्मा गान्धी की हत्या को ‘वध’
बताया जायेगा, सावरकर और अटल बिहारी के शर्मनाक माफीनामा पर पर्दा डाल दिया
जायेगा। परन्तु संघ परिवार और भाजपा को नहीं भूलना चाहिए कि इतिहास मरता
नहीं, बल्कि सवाल करता है।
अनिल यादव
मो0- 09454292339
द्वारा मोहम्मद शुऐब एडवोकेट
100/46 हरिनाथ बनर्जी स्टरीट
लाटूश रोड नया गांव ईस्ट
लखनउ उत्तर प्रदेश
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